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साहित्य और जीवन में गांधीवादी मूल्यों के चित्रकार गिरिराज किशोर


Photo: Twitter/@Sunil_Deodhar


अरुण कुमार


हिन्दी के प्रख्यात साहित्यकार व पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित 83 वर्षीय गिरिराज किशोर के निधन की खबर से हिन्दी जगत में शोक का सन्नाटा पसरता चला गया। गिरिराज किशोर पाठकों के बहुत प्रिय और हिन्दी के बड़े लेखक थे। वे अपनी विनम्रता, सौजन्यता के लिए भी याद किए जाएंगे। गिरिराज जी ने एक साक्षात्कार में कहा था कि- ‘सख्त से सख्त बात शिष्टाचार के आज के घेरे में रहकर भी कही जा सकती है। हम लेखक हैं। शब्द ही हमारा जीवन है और हमारी शक्ति भी। उसको बढ़ा सकें तो बढाएं कम न करें।’ अपने द्वारा कही गई उक्त बातों का पालन भी उन्होंने जीवन भर किया।


उनके बाबा जमींदार थे। मुजफ्फरनगर ज़िले के उनके पुश्तैनी घर को आज भी मोती महल के नाम से जाना जाता है। घर का पूरा वातावरण जमींदारी ठसक से भरा हुआ था लेकिन गिरिराज किशोर को उनसे कोई लगाव नहीं था बल्कि कहें तो उनसे एक तरह का वैराग्य ही उत्पन्न हो गया था। उनके घर के पुरुषों का महिलाओं के प्रति सामंतवादी व्यवहार था जिसको उन्होंने लगातार विरोध किया। स्नातक करने के बाद उन्होंने मुजफ्फरनगर का अपना वह घर छोड़ दिया और इलाहाबाद आ गए। इलाहाबाद जाते समय उनकी जेब में केवल 75 रूपए थे। यहां पढ़ाई के साथ-साथ उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखकर अपना खर्च चलाया। शुरुआत में ही उन्होंने गांधीवादी जीवन मूल्यों को आत्मसात कर लिया था इसलिए कम आमदनी में भी गुजारा करना सीख गए थे।


गिरिराज जी से जो भी मिला बस उनका होकर रह गया। उनके साहित्य को पढ़ने से कम दिलचस्प उनसे मिलना नहीं होता था। उन्होंने सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के लिए जीवन भर संघर्ष किया।

अपने लेखन के माध्यम से प्रगतिशीलता, आधुनिकता जैसे शब्दों को नए आयाम दिए हैं। उनके बहुआयामी व्यक्तित्व की तरह उनका लेखन भी वैविध्यपूर्ण रहा है। संघर्ष एवं लेखन को अपना धर्म मानने वाले गिरिराज किशोर जीवन भर भविष्य के प्रति आस्थावान रहे। सत्य के आकांक्षी एवं गांधीवाद से प्रभावित होने के कारण अन्याय के विरुद्ध लेखकीय बेचैनी उनमें हमेशा मौजूद रही। उन्होंने अपने पात्रों के माध्यम से अपनी इस बेचैनी को हमेशा अभिव्यक्ति दी। जीवन भर अपने लेखन के माध्यम से समाज की भलाई चाहने वाले गिरिराज किशोर ने अपना मृत शरीर भी समाज के किसी काम आ सके इस भावना से दान कर दिया था।


हिन्दी के प्रसिद्ध उपन्यासकार होने के साथ-साथ वे एक सशक्त कहानीकार, नाटककार और आलोचक भी थे। उनके समसामयिक विषयों पर पत्र-पत्रिकाओं में गम्भीर लेख भी लगातार प्रकाशित होते थे। जुगलबंदी, ढाई घर, पहला गिरमिटिया, परिशिष्ट आदि उपन्यासों में हमने सामाजिक यथार्थ को नए ढंग से देखा। उन्हें हिन्दी के महान उपन्यासकारों प्रेमचंद, जैनेन्द्र, अज्ञेय, रेणु, राही मासूम रजा, श्रीलाल शुक्ल आदि की परंपरा को आगे बढाने वाले उपन्यासकार के रूप में याद किया जाएगा।


गिरिराज किशोर के ‘ढाई घर' उपन्यास को पाठकों और आलोचकों की काफी प्रशंसा मिली थी और इसी उपन्यास के लिए उन्हें 1992 में प्रतिष्ठित ‘साहित्य अकादमी’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

उन्होंने मृत्यु तक कानपुर से निकलने वाली त्रैमासिक हिन्दी पत्रिका ' अकार' का संपादन किया। उन्होंने महात्मा गांधी के जीवन पर 'पहला गिरमिटिया' नामक वृहत्त उपन्यास लिखा है। यह उपन्यास महात्मा गांधी के अफ्रीका प्रवास पर आधारित है। इस उपन्यास से ‘गांधी’ के ‘बापू’ बनने की प्रक्रिया को समझा जा सकता है। गांधी के जीवन पर तो प्रचुर लेखन सामग्री फिर भी मिलती है लेकिन उन्होंने कस्तूरबा गांधी के जीवन पर आधारित उपन्यास 'बा' लिखने जैसा श्रमसाध्य कार्य किया था। कस्तूरबा गांधी के जीवन से संबन्धित सामग्री का पर्याप्त अभाव है लेकिन उन्होंने काफी शोध किया। ' बा' उपन्यास पढ़ने के बाद हम कस्तूरबा गांधी नामक एक स्त्री को एक व्यक्ति के रूप में पहचान पाते हैं जो ' बापू' के ‘बापू’ बनने की प्रक्रिया में हमेशा न केवल एक खामोश ईंट की तरह नींव में बनी रही बल्कि अन्य ईंटों को भी मजबूती से जकड़ी रही। बा उपन्यास में हम बापू को उनके अन्य रूपों एक ‘पति’ और एक ‘पिता’ के रूप में देखते हैं। गिरिराज किशोर ने यह भी दिखाया कि घर के भीतर वह व्यक्ति (बापू) कैसा रहा होगा जिसे हमने पहले देश और फिर विश्व का मार्गदर्शक बनते देखा। उन्होंने अपने उपन्यास ‘स्वर्णमृग’ में वैश्वीकरण के ज्वलंत प्रश्न को कथानायक ‘पुरुषोत्तम’ के माध्यम से उभारा है। ‘ढाई घर’ में गिरिराज किशोर ने जीवन के इतने विविध रंग, रेखाएं, चरित्र और परिवेश के स्वर शामिल किए कि उनसे गुजर कर हम समाज और उसकी धड़कन को पहचानने की दृष्टि पा लेते हैं।


गिरिराज किशोर हिन्दी के उन विशिष्ट साहित्यकारों में से थे जिन्होंने अपनी रचनाओं को जीवन के यथार्थ से जोड़ने की चुनौती को न केवल स्वीकार किया बल्कि पूरी कुशलता से निभाया भी। उनके लेखन में उतनी ही विविधता है जितनी मनुष्य के जीवन में मिलती है। उनका पूरा लेखन जीवन के गहरे अनुभव का प्रतिबिंब प्रतीत होता है। उन्होंने अनुभव और भाषा को मिलाकर मानवीयता के पक्ष में खड़े होने की एक अद्वितीय शैली विकसित की थी। अनुभव को भाषा से और भाषा को अनुभव से उकेरने की उनकी शैली उन्हें हिन्दी के बड़े साहित्यकारों की पंक्ति में खड़ी करती है। गिरिराज किशोर के लेखन की विशेषता यह है कि उन्होंने उन समस्याओं को विषय बनाया है जिनका प्रभाव जनसाधारण पर सबसे अधिक पड़ता है। उन्होंने सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्थिति को जनपक्षी बनाने का प्रयास किया। वह एक साहित्यकार होने के साथ-साथ आईआईटी, कानपुर के कुलसचिव भी रह चुके थे। यहाँ उन्होंने इंजीनियरिंग के छात्रों में रचनात्मक प्रतिभा का विकास करने के उद्देश्य से ‘रचनात्मक लेखन केन्द्र’ की स्थापना की थी।


हिन्दी साहित्य में दिए जाने वाले सभी छोटे-बड़े पुरस्कार भी उन्हें मिल चुके हैं। 2007 में उन्हें पद्मश्री जैसा प्रतिष्ठित पुरस्कार मिला। गिरिराज किशोर का साहित्य अपनी भाषा, चलते मुहावरों, जीवन्त दृश्यांकनों और यथार्थपूर्ण चित्रण के कारण न केवल पाठकों को बांधता है बल्कि साहित्य लेखन के भविष्य को भी तय करने में मार्गदर्शक की भूमिका निभाता रहेगा।


(लेखक ने जेएनयू से पीएचडी की है और वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक हैं)

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